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तलाक

(मरकुस 10:1-12)

19 ये बातें कहने के बाद वह गलील से लौट कर यहूदिया के क्षेत्र में यर्दन नदी के पार चला गया। एक बड़ी भीड़ वहाँ उसके पीछे हो ली, जिसे उसने चंगा किया।

उसे परखने के जतन में कुछ फ़रीसी उसके पास पहुँचे और बोले, “क्या यह उचित है कि कोई अपनी पत्नी को किसी भी कारण से तलाक दे सकता है?”

उत्तर देते हुए यीशु ने कहा, “क्या तुमने शास्त्र में नहीं पढ़ा कि जगत को रचने वाले ने प्रारम्भ में, ‘उन्हें एक स्त्री और एक पुरुष के रूप में रचा था?’(A) और कहा था ‘इसी कारण अपने माता-पिता को छोड़ कर पुरुष अपनी पत्नी के साथ दो होते हुए भी एक शरीर होकर रहेगा।’(B) सो वे दो नहीं रहते बल्कि एक रूप हो जाते हैं। इसलिए जिसे परमेश्वर ने जोड़ा है उसे किसी भी मनुष्य को अलग नहीं करना चाहिये।”

वे बोले, “फिर मूसा ने यह क्यों निर्धारित किया है कि कोई पुरुष अपनी पत्नी को तलाक दे सकता है। शर्त यह है कि वह उसे तलाक नामा लिख कर दे।”

यीशु ने उनसे कहा, “मूसा ने यह विधान तुम लोगों के मन की जड़ता के कारण दिया था। किन्तु प्रारम्भ में ऐसी रीति नहीं थी। तो मैं तुमसे कहता हूँ कि जो व्यभिचार को छोड़कर अपनी पत्नी को किसी और कारण से त्यागता है और किसी दूसरी स्त्री को ब्याहता है तो वह व्यभिचार करता है।”

10 इस पर उसके शिष्यों ने उससे कहा, “यदि एक स्त्री और एक पुरुष के बीच ऐसी स्थिति है तो किसी को ब्याह ही नहीं करना चाहिये।”

11 फिर यीशु ने उनसे कहा, “हर कोई तो इस उपदेश को ग्रहण नहीं कर सकता। इसे बस वे ही ग्रहण कर सकते हैं जिनको इसकी क्षमता प्रदान की गयी है। 12 कुछ ऐसे हैं जो अपनी माँ के गर्भ से ही नपुंसक पैदा हुए हैं। और कुछ ऐसे हैं जो लोगों द्वारा नपुंसक बना दिये गये हैं। और अंत में कुछ ऐसे हैं जिन्होंने स्वर्ग के राज्य के कारण विवाह नहीं करने का निश्चय किया है। जो इस उपदेश को ले सकता है ले।”

यीशु की आशीष: बच्चों को

(मरकुस 10:13-16; लूका 18:15-17)

13 फिर लोग कुछ बालकों को यीशु के पास लाये कि वह उनके सिर पर हाथ रख कर उन्हें आशीर्वाद दे और उनके लिए प्रार्थना करे। किन्तु उसके शिष्यों ने उन्हें डाँटा। 14 इस पर यीशु ने कहा, “बच्चों को रहने दो, उन्हें मत रोको, मेरे पास आने दो क्योंकि स्वर्ग का राज्य ऐसों का ही है।” 15 फिर उसने बच्चों के सिर पर अपना हाथ रखा और वहाँ से चल दिया।

एक महत्वपूर्ण प्रश्न

(मरकुस 10:17-31; लूका 18:18-30)

16 वहीं एक व्यक्ति था। वह यीशु के पास आया और बोला, “गुरु अनन्त जीवन पाने के लिए मुझे क्या अच्छा काम करना चाहिये?”

17 यीशु ने उससे कहा, “अच्छा क्या है, इसके बारे में तू मुझसे क्यों पूछ रहा है? क्योंकि अच्छा तो केवल एक ही है! फिर भी यदि तू अनन्त जीवन में प्रवेश करना चाहता है, तो तू आदेशों का पालन कर।”

18 उसने यीशु से पूछा, “कौन से आदेश?”

तब यीशु बोला, “हत्या मत कर। व्यभिचार मत कर। चोरी मत कर। झूठी गवाही मत दे। 19 ‘अपने पिता और अपनी माता का आदर कर’(C) और ‘जैसे तू अपने आप को प्यार करता है, वैसे ही अपने पड़ोसी से भी प्यार कर।’[a]

20 युवक ने यीशु से पूछा, “मैंने इन सब बातों का पालन किया है। अब मुझ में किस बात की कमी है?”

21 यीशु ने उससे कहा, “यदि तू संपूर्ण बनना चाहता तो जा और जो कुछ तेरे पास है, उसे बेचकर धन गरीबों में बाँट दे ताकि स्वर्ग में तुझे धन मिल सके। फिर आ और मेरे पीछे हो ले!”

22 किन्तु जब उस नौजवान ने यह सुना तो वह दुःखी होकर चला गया क्योंकि वह बहुत धनवान था।

23 यीशु ने अपने शिष्यों से कहा, “मैं तुमसे सत्य कहता हूँ कि एक धनवान का स्वर्ग के राज्य में प्रवेश कर पाना कठिन है। 24 हाँ, मैं तुमसे कहता हूँ कि किसी धनवान व्यक्ति के स्वर्ग के राज्य में प्रवेश पाने से एक ऊँट का सूई के नकुए से निकल जाना आसान है।”

25 जब उसके शिष्यों ने यह सुना तो अचरज से भरकर पूछा, “फिर किस का उद्धार हो सकता है?”

26 यीशु ने उन्हें देखते हुए कहा, “मनुष्यों के लिए यह असम्भव है, किन्तु परमेश्वर के लिए सब कुछ सम्भव है।”

27 उत्तर में तब पतरस ने उससे कहा, “देख, हम सब कुछ त्याग कर तेरे पीछे हो लिये हैं। सो हमें क्या मिलेगा?”

28 यीशु ने उनसे कहा, “मैं तुम लोगों से सत्य कहता हूँ कि नये युग में जब मनुष्य का पुत्र अपने प्राप्त सिंहासन पर विराजेगा तो तुम भी, जो मेरे पीछे हो लिये हो, बारह सिंहासनों पर बैठकर परमेश्वर के लोगों का न्याय करोगे। 29 और मेरे लिए जिसने भी घर-बार या भाईयों या बहनों या पिता या माता या बच्चों या खेतों को त्याग दिया है, वह सौ गुणा अधिक पायेगा और अनन्त जीवन का भी अधिकारी बनेगा। 30 किन्तु बहुत से जो अब पहले हैं, अन्तिम हो जायेंगे और जो अन्तिम हैं, पहले हो जायेंगे।”

मजदूरों की दृष्टान्त-कथा

20 “स्वर्ग का राज्य एक ज़मींदार के समान है जो सुबह सवेरे अपने अंगूर के बगीचों के लिये मज़दूर लाने को निकला। उसने चाँदी के एक रुपये पर मज़दूर रख कर उन्हें अपने अंगूर के बगीचे में काम करने भेज दिया।

“नौ बजे के आसपास ज़मींदार फिर घर से निकला और उसने देखा कि कुछ लोग बाजार में इधर उधर यूँ ही बेकार खड़े हैं। तब उसने उनसे कहा, ‘तुम भी मेरे अंगूर के बगीचे में जाओ, मैं तुम्हें जो कुछ उचित होगा, दूँगा।’ सो वे भी बगीचे में काम करने चले गये।

“फिर कोई बारह बजे और दुबारा तीन बजे के आसपास, उसने वैसा ही किया। कोई पाँच बजे वह फिर अपने घर से गया और कुछ लोगों को बाज़ार में इधर उधर खड़े देखा। उसने उनसे पूछा, ‘तुम यहाँ दिन भर बेकार ही क्यों खड़े रहते हो?’

“उन्होंने उससे कहा, ‘क्योंकि हमें किसी ने मज़दूरी पर नहीं रखा।’

“उसने उनसे कहा, ‘तुम भी मेरे अंगूर के बगीचे में चले जाओ।’

“जब साँझ हूई तो अंगूर के बगीचे के मालिक ने अपने प्रधान कर्मचारी को कहा, ‘मज़दूरों को बुलाकर अंतिम मज़दूर से शुरू करके जो पहले लगाये गये थे उन तक सब की मज़दूरी चुका दो।’

“सो वे मज़दूर जो पाँच बजे लगाये थे, आये और उनमें से हर किसी को चाँदी का एक रुपया मिला। 10 फिर जो पहले लगाये गये थे, वे आये। उन्होंने सोचा उन्हें कुछ अधिक मिलेगा पर उनमें से भी हर एक को एक ही चाँदी का रुपया मिला। 11 रुपया तो उन्होंने ले लिया पर ज़मींदार से शिकायत करते हुए 12 उन्होंने कहा, ‘जो बाद में लगे थे, उन्होंने बस एक घंटा काम किया और तूने हमें भी उतना ही दिया जितना उन्हें। जबकि हमने सारे दिन चमचमाती धूप में मेहनत की।’

13 “उत्तर में उनमें से किसी एक से जमींदार ने कहा, ‘दोस्त, मैंने तेरे साथ कोई अन्याय नहीं किया है। क्या हमने तय नहीं किया था कि मैं तुम्हें चाँदी का एक रुपया दूँगा? 14 जो तेरा बनता है, ले और चला जा। मैं सबसे बाद में रखे गये इस को भी उतनी ही मज़दूरी देना चाहता हूँ जितनी तुझे दे रहा हूँ। 15 क्या मैं अपने धन का जो चाहूँ वह करने का अधिकार नहीं रखता? मैं अच्छा हूँ क्या तू इससे जलता है?’

16 “इस प्रकार अंतिम पहले हो जायेंगे और पहले अंतिम हो जायेंगे।”

यीशु द्वारा अपनी मृत्यु का संकेत

(मरकुस 10:32-34; लूका 18:31-34)

17 जब यीशु अपने बारह शिष्यों के साथ यरूशलेम जा रहा था तो वह उन्हें एक तरफ़ ले गया और चलते चलते उनसे बोला, 18 “सुनो, हम यरूशलेम पहुँचने को हैं। मनुष्य का पुत्र वहाँ प्रमुख याजकों और यहूदी धर्म शास्त्रियों के हाथों सौंप दिया जायेगा। वे उसे मृत्यु दण्ड के योग्य ठहरायेंगे। 19 फिर उसका उपहास करवाने और कोड़े लगवाने को उसे गै़र यहूदियों को सौंप देंगे। फिर उसे क्रूस पर चढ़ा दिया जायेगा किन्तु तीसरे दिन वह फिर जी उठेगा।”

एक माँ का अपने बच्चों के लिए आग्रह

(मरकुस 10:35-45)

20 फिर जब्दी के बेटों की माँ अपने बेटों समेत यीशु के पास पहुँची और उसने झुक कर प्रार्थना करते हुए उससे कुछ माँगा।

21 यीशु ने उससे पूछा, “तू क्या चाहती है?”

वह बोली, “मुझे वचन दे कि मेरे ये दोनों बेटे तेरे राज्य में एक तेरे दाहिनी ओर और दूसरा तेरे बाई ओर बैठे।”

22 यीशु ने उत्तर दिया, “तुम नहीं जानते कि तुम क्या माँग रहे हो। क्या तुम यातनाओं का वह प्याला पी सकते हो, जिसे मैं पीने वाला हूँ?”

उन्होंने उससे कहा, “हाँ, हम पी सकते हैं!”

23 यीशु उनसे बोला, “निश्चय ही तुम वह प्याला पीयोगे। किन्तु मेरे दाएँ और बायें बैठने का अधिकार देने वाला मैं नहीं हूँ। यहाँ बैठने का अधिकार तो उनका है, जिनके लिए यह मेरे पिता द्वारा सुरक्षित किया जा चुका है।”

24 जब बाकी दस शिष्यों ने यह सुना तो वे उन दोनों भाईयों पर बहुत बिगड़े। 25 तब यीशु ने उन्हें अपने पास बुलाकर कहा, “तुम जानते हो कि गैर यहूदी राजा, लोगों पर अपनी शक्ति दिखाना चाहते हैं और उनके महत्वपूर्ण नेता, लोगों पर अपना अधिकार जताना चाहते हैं। 26 किन्तु तुम्हारे बीच ऐसा नहीं होना चाहिये। बल्कि तुम में जो बड़ा बनना चाहे, तुम्हारा सेवक बने। 27 और तुम में से जो कोई पहला बनना चाहे, उसे तुम्हारा दास बनना होगा। 28 तुम्हें मनुष्य के पुत्र जैसा ही होना चाहिये जो सेवा कराने नहीं, बल्कि सेवा करने और बहुतों के छुटकारे के लिये अपने प्राणों की फिरौती देने आया है।”

अंधों को आँखें

(मरकुस 10:46-52; लूका 18:35-43)

29 जब वे यरीहो नगर से जा रहे थे एक बड़ी भीड़ यीशु के पीछे हो ली। 30 वहाँ सड़क किनारे दो अंधे बैठे थे। जब उन्होंने सुना कि यीशु वहाँ से जा रहा है, वे चिल्लाये, “प्रभु, दाऊद के पुत्र, हम पर दया कर!”

31 इस पर भीड़ ने उन्हें धमकाते हुए चुप रहने को कहा पर वे और अधिक चिल्लाये, “प्रभु! दाऊद के पुत्र हम पर दया कर!”

32 फिर यीशु रुका और उनसे बोला, “तुम क्या चाहते हो, मैं तुम्हारे लिए क्या करूँ?”

33 उन्होंने उससे कहा, “प्रभु, हम चाहते हैं कि हम देख सकें।”

34 यीशु को उन पर दया आयी। उसने उनकी आँखों को छुआ, और तुरंत ही वे फिर देखने लगे। वे उसके पीछे हो लिए।

यीशु का यरूशलेम में भव्य प्रवेश

(मरकुस 11:1-11; लूका 19:28-38; यूहन्ना 12:12-19)

21 यीशु और उसके अनुयायी जब यरूशलेम के पास जैतून पर्वत के निकट बैतफगे पहुँचे तो यीशु ने अपने दो शिष्यों को यह आदेश “देकर भेजा कि अपने ठीक सामने के गाँव में जाओ और वहाँ जाते ही तुम्हें एक गधी बँधी मिलेगी। उसके साथ उसका बच्चा भी होगा। उन्हें बाँध कर मेरे पास ले आओ। यदि कोई तुमसे कुछ कहे तो उससे कहना, ‘प्रभु को इनकी आवश्यकता है। वह जल्दी ही इन्हें लौटा देगा।’”

ऐसा इसलिये हुआ कि भविष्यवक्ता का यह वचन पूरा हो:

“सिओन की नगरी से कहो,
    ‘देख तेरा राजा तेरे पास आ रहा है।
वह विनयपूर्ण है, वह गधी पर सवार है,
    हाँ गधी के बच्चे पर जो एक श्रमिक पशु का बच्चा है।’”(D)

सो उसके शिष्य चले गये और वैसा ही किया जैसा उन्हें यीशु ने बताया था। वे गधी और उसके बछेरे को ले आये। और उन पर अपने वस्त्र डाल दिये क्योंकि यीशु को बैठना था। भीड़ में बहुत से लोगों ने अपने वस्त्र राह में बिछा दिये और दूसरे लोग पेड़ों से टहनियाँ काट लाये और उन्हें मार्ग में बिछा दिया। जो लोग उनके आगे चल रहे थे और जो लोग उनके पीछे चल रहे थे सब पुकार कर कह रहे थे:

“होशन्ना! धन्य है दाऊद का वह पुत्र!
    ‘जो आ रहा है प्रभु के नाम पर धन्य है।’(E)

प्रभु जो स्वर्ग में विराजा।”

10 सो जब उसने यरूशलेम में प्रवेश किया तो समूचे नगर में हलचल मच गयी। लोग पूछने लगे, “यह कौन है?”

11 लोग ही जवाब दे रहे थे, “यह गलील के नासरत का नबी यीशु है।”

यीशु मन्दिर में

(मरकुस 11:15-19; लूका 19:45-48; यूहन्ना 2:13-22)

12 फिर यीशु मन्दिर के अहाते में आया और उसने मन्दिर के अहाते में जो लोग खरीद-बिकरी कर रहे थे, उन सब को बाहर खदेड़ दिया। उसने पैसों की लेन-देन करने वालों की चौकियों को उलट दिया और कबूतर बेचने वालों के तख्त पलट दिये। 13 वह उनसे बोला, “शास्त्र कहते हैं, ‘मेरा घर प्रार्थना-गृह कहलायेगा।(F) किन्तु तुम इसे डाकुओं का अड्डा बना रहे हो।’”(G)

14 मन्दिर में कुछ अंधे, लँगड़े लूले उसके पास आये। जिन्हें उसने चंगा कर दिया। 15 तब प्रमुख याजकों और यहूदी धर्मशास्त्रियों ने उन अद्भुत कामों को देखा जो उसने किये थे और मन्दिर में बच्चों को ऊँचे स्वर में कहते सुना: “होशन्ना! दाऊद का वह पुत्र धन्य है।”

16 तो वे बहुत क्रोधित हुए। और उससे पूछा, “तू सुनता है वे क्या कह रहे हैं?”

यीशु ने उनसे कहा, “हाँ, सुनता हूँ। क्या धर्मशास्त्र में तुम लोगों ने नहीं पढ़ा, ‘तूने बालकों और दूध पीते बच्चों तक से स्तुति करवाई है।’”(H)

17 फिर उन्हें वहीं छोड़ कर वह यरूशलेम नगर से बाहर बैतनिय्याह को चला गया। जहाँ उसने रात बिताई।

विश्वास की शक्ति

(मरकुस 11:12-14, 20-24)

18 अगले दिन अलख सुबह जब वह नगर को वापस लौट रहा था तो उसे भूख लगी। 19 राह किनारे उसने अंजीर का एक पेड़ देखा सो वह उसके पास गया, पर उसे उस पर पत्तों को छोड़ और कुछ नहीं मिला। सो उसने पेड़ से कहा, “तुझ पर आगे कभी फल न लगे!” और वह अंजीर का पेड़ तुरंत सूख गया।

20 जब शिष्यों ने वह देखा तो अचरज के साथ पूछा, “यह अंजीर का पेड़ इतनी जल्दी कैसे सूख गया?”

21 यीशु ने उत्तर देते हुए उनसे कहा, “मैं तुमसे सत्य कहता हूँ। यदि तुम में विश्वास है और तुम संदेह नहीं करते तो तुम न केवल वह कर सकते हो जो मैंने अंजीर के पेड़ का किया। बल्कि यदि तुम इस पहाड़ से कहो, ‘उठ और अपने आप को सागर में डुबो दे’ तो वही हो जायेगा। 22 और प्रार्थना करते हुए तुम जो कुछ माँगो, यदि तुम्हें विश्वास है तो तुम पाओगे।”

यहूदी नेताओं का यीशु के अधिकार पर संदेह

(मरकुस 11:27-33; लूका 20:1-8)

23 जब यीशु मन्दिर में जाकर उपदेश दे रहा था तो प्रमुख याजकों और यहूदी बुजु़र्गो ने पास जाकर उससे पूछा, “ऐसी बातें तू किस अधिकार से करता है? और यह अधिकार तुझे किसने दिया?”

24 उत्तर में यीशु ने उनसे कहा, “मैं तुमसे एक प्रश्न पूछता हूँ, यदि उसका उत्तर तुम मुझे दे दो तो मैं तुम्हें बता दूँगा कि मैं ये बातें किस अधिकार से करता हूँ। 25 बताओ यूहन्ना को बपतिस्मा कहाँ से मिला? परमेश्वर से या मनुष्य से?”

वे आपस में विचार करते हुए कहने लगे, “यदि हम कहते हैं ‘परमेश्वर से’ तो यह हमसे पूछेगा ‘फिर तुम उस पर विश्वास क्यों नहीं करते?’ 26 किन्तु यदि हम कहते हैं ‘मनुष्य से’ तो हमें लोगों का डर है क्योंकि वे यूहन्ना को एक नबी मानते हैं।”

27 सो उत्तर में उन्होंने यीशु से कहा, “हमें नहीं पता।”

इस पर यीशु उनसे बोला, “अच्छा तो फिर मैं भी तुम्हें नहीं बताता कि ये बातें मैं किस अधिकार से करता हूँ!”

यहूदियों के लिए एक दृष्टातं कथा

28 “अच्छा बताओ तुम लोग इसके बारे में क्या सोचते हो? एक व्यक्ति के दो पुत्र थे। वह बड़े के पास गया और बोला, ‘पुत्र आज मेरे अंगूरों के बगीचे में जा और काम कर।’

29 “किन्तु पुत्र ने उत्तर दिया, ‘मेरी इच्छा नहीं है’ पर बाद में उसका मन बदल गया और वह चला गया।

30 “फिर वह पिता दूसरे बेटे के पास गया और उससे भी वैसे ही कहा। उत्तर में बेटे ने कहा, ‘जी हाँ,’ मगर वह गया नहीं।

31 “बताओ इन दोनों में से जो पिता चाहता था, किसने किया?”

उन्होंने कहा, “बड़े ने।”

यीशु ने उनसे कहा, “मैं तुमसे सत्य कहता हूँ कर वसूलने वाले और वेश्याएँ परमेश्वर के राज्य में तुमसे पहले जायेंगे। 32 यह मैं इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि बपतिस्मा देने वाला यूहन्ना तुम्हें जीवन का सही रास्ता दिखाने आया और तुमने उसमें विश्वास नहीं किया। किन्तु कर वसूलने वालों और वेश्याओं ने उसमें विश्वास किया। तुमने जब यह देखा तो भी बाद में न मन फिराया और न ही उस पर विश्वास किया।

परमेश्वर का अपने पुत्र को भेजना

(मरकुस 12:1-12; लूका 20:9-19)

33 “एक और दृष्टान्त सुनो: एक ज़मींदार था। उसने अंगूरों का एक बगीचा लगाया और उसके चारों ओर बाड़ लगा दी। फिर अंगूरों का रस निकालने का गरठ लगाने को एक गडढ़ा खोदा और रखवाली के लिए एक मीनार बनायी। फिर उसे बटाई पर देकर वह यात्रा पर चला गया। 34 जब अंगूर उतारने का समय आया तो बगीचे के मालिक ने किसानों के पास अपने दास भेजे ताकि वे अपने हिस्से के अंगूर ले आयें।

35 “किन्तु किसानों ने उसके दासों को पकड़ लिया। किसी की पिटाई की, किसी पर पत्थर फेंके और किसी को तो मार ही डाला। 36 एक बार फिर उसने पहले से और अधिक दास भेजे। उन किसानों ने उनके साथ भी वैसा ही बर्ताव किया। 37 बाद में उसने उनके पास अपने बेटे को भेजा। उसने कहा, ‘वे मेरे बेटे का तो मान रखेंगे ही।’

38 “किन्तु उन किसानों ने जब उसके बेटे को देखा तो वे आपस में कहने लगे, ‘यह तो उसका उत्तराधिकारी है, आओ इसे मार डालें और उसका उत्तराधिकार हथिया लें।’ 39 सो उन्होंने उसे पकड़ कर बगीचे के बाहर धकेल दिया और मार डाला।

40 “तुम क्या सोचते हो जब वहाँ अंगूरों के बगीचे का मालिक आयेगा तो उन किसानों के साथ क्या करेगा?”

41 उन्होंने उससे कहा, “क्योंकि वे निर्दय थे इसलिए वह उन्हें बेरहमी से मार डालेगा और अंगूरों के बगीचे को दूसरे किसानों को बटाई पर दे देगा जो फसल आने पर उसे उसका हिस्सा देंगें।”

42 यीशु ने उनसे कहा, “क्या तुमने शास्त्र का वह वचन नहीं पढ़ा:

‘जिस पत्थर को मकान बनाने वालों ने बेकार समझा, वही कोने का सबसे अधिक महत्वपूर्ण पत्थर बन गया?
ऐसा प्रभु के द्वारा किया गया जो हमारी दृष्टि में अद्भुत है।’(I)

43 “इसलिये मैं तुमसे कहता हूँ परमेश्वर का राज्य तुमसे छीन लिया जायेगा और वह उन लोगों को दे दिया जायेगा जो उसके राज्य के अनुसार बर्ताव करेंगे। 44 जो इस चट्टान पर गिरेगा, टुकड़े टुकड़े हो जायेगा और यदि यह चट्टान किसी पर गिरेगी तो उसे रौंद डालेगी।”

45 जब प्रमुख याजकों और फरीसियों ने यीशु की दृष्टान्त कथाएँ सुनीं तो वे ताड़ गये कि वह उन्हीं के बारे में कह रहा था। 46 सो उन्होंने उसे पकड़ने का जतन किया किन्तु वे लोगों से डरते थे क्योंकि लोग यीशु को नबी मानते थे।

Footnotes

  1. 19:19 लैव्यव्यवस्था 19:18

तलाक का विषय

(मारक 10:1-12)

19 अपना कथन समाप्त करने के बाद येशु गलील प्रदेश से निकल कर यहूदिया प्रदेश के उस क्षेत्र में आ गए, जो यरदन नदी के पार है. वहाँ एक बड़ी भीड़ उनके पीछे हो ली और येशु ने रोगियों को स्वस्थ किया.

कुछ फ़रीसी येशु को परखने के उद्देश्य से उनके पास आए तथा उनसे प्रश्न किया, “क्या पत्नी से तलाक के लिए पति द्वारा प्रस्तुत कोई भी कारण वैध कहा जा सकता है?”

येशु ने उन्हें उत्तर दिया, “क्या तुमने पढ़ा नहीं कि वह, जिन्होंने उनकी सृष्टि की, उन्होंने प्रारम्भ ही से उन्हें नर और नारी बनाया तथा कहा, ‘अतः पुरुष अपने माता-पिता से मोहबन्ध तोड़ कर अपनी पत्नी से मिला रहेगा और वे दोनों एक तन होंगे.’ परिणामस्वरूप अब वे दो नहीं परन्तु एक शरीर हैं. इसलिए जिन्हें स्वयं परमेश्वर ने जोड़ा है, उन्हें कोई मनुष्य अलग न करे.”

यह सुन उन्होंने येशु से पूछा, “तो फिर मोशेह की व्यवस्था में यह प्रबंध क्यों है कि तलाक पत्र दे कर पत्नी को छोड़ दिया जाए?”

येशु ने उन पर यह सच स्पष्ट किया, “तुम्हारे हृदय की कठोरता के कारण ही मोशेह ने तुम्हारे लिए तुम्हारी पत्नी से तलाक की अनुमति दी थी. प्रारम्भ ही से यह प्रबंध नहीं था. तुमसे मेरा कहना है कि जो कोई व्यभिचार के अतिरिक्त किसी अन्य कारण से अपनी पत्नी से तलाक कर लेता और अन्य स्त्री से विवाह करता है, वह व्यभिचार करता है.”

10 शिष्यों ने येशु से कहा, “यदि पति-पत्नी का सम्बन्ध ऐसा है तब तो उत्तम यही होगा कि विवाह किया ही न जाए.”

11 येशु ने इसके उत्तर में कहा, “यह स्थिति सब पुरुषों के लिए स्वीकार नहीं हो सकती—अतिरिक्त उनके, जिन्हें परमेश्वर ने ऐसा बनाया है 12 —कुछ नपुंसक हैं, जो माता के गर्भ से ही ऐसे जन्मे हैं; कुछ हैं, जिन्हें मनुष्यों ने ऐसा बना दिया है तथा कुछ ने स्वर्ग-राज्य के लिए स्वयं को ऐसा बना लिया है. जो इसे समझ सकता है, समझ ले.”

येशु तथा बालक

(मारक 10:13-16; लूकॉ 18:15-17)

13 कुछ लोग बालकों को येशु के पास लाए कि येशु उन पर हाथ रख कर उनके लिए प्रार्थना करें, मगर शिष्यों ने उन लोगों को डाँटा.

14 यह सुन येशु ने उनसे कहा, “बालकों को यहाँ आने दो, उन्हें मेरे पास आने से मत रोको क्योंकि स्वर्ग-राज्य ऐसों का ही है”. 15 यह कहते हुए येशु ने बालकों पर हाथ रखे. इसके बाद येशु वहाँ से आगे चले गए.

अनन्त जीवन का अभिलाषी धनी युवक

(मारक 10:17-31; लूकॉ 18:18-30)

16 एक व्यक्ति ने आ कर येशु से प्रश्न किया, “गुरुवर, अनन्त काल का जीवन प्राप्त करने के लिए मैं कौन सा अच्छा काम करूँ?” येशु ने उसे उत्तर दिया.

17 “तुम मुझसे क्यों पूछते हो कि अच्छा क्या है? उत्तम तो मात्र एक ही हैं. परन्तु यदि तुम जीवन में प्रवेश की कामना करते ही हो तो आदेशों का पालन करो.”

18 “कौन से?” उसने येशु से प्रश्न किया.

उन्होंने उसे उत्तर दिया, “हत्या मत करो; व्यभिचार मत करो; चोरी मत करो; झूठी गवाही मत दो; 19 अपने माता-पिता का सम्मान करो तथा तुम अपने पड़ोसी से वैसे ही प्रेम करो जैसे तुम स्वयं से करते हो.”

20 उस युवक ने येशु को उत्तर दिया, “मैं तो इनका पालन करता रहा हूँ; तब अब भी क्या कमी है मुझ में?”

21 येशु ने उसे उत्तर दिया, “यदि तुम सिद्ध बनना चाहते हो तो अपनी सम्पत्ति को बेच कर उस राशि को निर्धनों में वितरित कर दो और आओ, मेरे पीछे हो लो—धन तुम्हें स्वर्ग में प्राप्त होगा.”

22 यह सुन कर वह युवक दुःखित हो लौट गया क्योंकि वह बहुत धन का स्वामी था.

23 अपने शिष्यों से उन्मुख हो येशु ने कहा, “मैं तुम पर एक सच प्रकट कर रहा हूँ: किसी धनी व्यक्ति का स्वर्ग-राज्य में प्रवेश कठिन है. 24 वास्तव में परमेश्वर के राज्य में एक धनी के प्रवेश करने से एक ऊँट का सुई के छेद में से पार हो जाना सहज है.”

25 यह सुन कर शिष्य चकित हो येशु से पूछने लगे, “तो उद्धार कौन पाएगा?”

26 येशु ने उनकी ओर एक टक देखते हुए उन्हें उत्तर दिया, “मनुष्य के लिए तो यह असम्भव है किन्तु परमेश्वर के लिए सब कुछ सम्भव है.”

27 इस पर पेतरॉस येशु से बोले, “देखिए, हम तो सब कुछ त्याग कर आपके पीछे हो लिए हैं. हमारा पुरस्कार क्या होगा?”

28 येशु ने सभी शिष्यों को सम्बोधित करते हुए कहा, “यह सच है कि उस समय, जब मनुष्य के पुत्र अपने वैभवशाली सिंहासन पर विराजमान होगा, तुम भी, जो मेरे चेले बन गए हो, इस्राएल के बारह गोत्रों का न्याय करते हुए बारह सिंहासनों पर विराजमान होगे. 29 हर एक, जिसने मेरे लिए घर, भाई-बहन, माता-पिता, सन्तान या खेतों का त्याग किया है, इनसे कई गुणा प्राप्त करेगा और वह अनन्त काल के जीवन का वारिस होगा 30 किन्तु अनेक, जो पहिले हैं, वे अन्तिम होंगे तथा जो अन्तिम हैं, वे पहिले.

विभिन्न समयों पर लगाए गए मज़दूरों का दृष्टान्त

20 “स्वर्ग-राज्य दाख की बारी के उस स्वामी के समान है, जो सवेरे अपने उद्यान के लिए मज़दूर लाने निकला. जब वह मज़दूरों से एक दीनार रोज़ की मज़दूरी पर सहमत हो गया, उसने उन्हें दाख की बारी में काम करने भेज दिया.

“दिन के तीसरे घण्टे जब वह दोबारा नगर-चौक से जा रहा था, उसने वहाँ कुछ मज़दूरों को बेकार खड़े पाया. उसने उनसे कहा, ‘तुम भी जा कर मेरे दाख की बारी में काम करो. जो कुछ सही होगा, मैं तुम्हें दूँगा.’ इसलिए वे चले गए. वह दोबारा छठे तथा नवें घण्टे नगर-चौक में गया और ऐसा ही किया. लगभग ग्यारहवें घण्टे वह दोबारा वहाँ गया और कुछ अन्यों को वहाँ खड़े पाया. उसने उनसे प्रश्न किया, ‘तुम सारे दिन यहाँ बेकार क्यों खड़े रहे?’

“‘उन्होंने उसे उत्तर दिया’, ‘इसलिए कि किसी ने हमें काम नहीं दिया’.

“उसने उनसे कहा, ‘तुम भी मेरे दाख की बारी में चले जाओ.’

“साँझ होने पर दाख की बारी के स्वामी ने प्रबन्धक को आज्ञा दी, ‘अन्त में आए मज़दूरों से प्रारम्भ करते हुए सबसे पहले काम पर लगाए गए मज़दूरों को उनकी मज़दूरी दे दो.’

“उन मज़दूरों को, जो ग्यारहवें घण्टे काम पर लगाए गए थे, एक-एक दीनार मिला. 10 इस प्रकार सबसे पहले आए मज़दूरों ने सोचा कि उन्हें अधिक मज़दूरी प्राप्त होगी किन्तु उन्हें भी एक-एक दीनार ही मिला. 11 इसलिए वे स्वामी पर बड़बड़ाने लगे, 12 ‘अन्त में आए इन मज़दूरों ने मात्र एक ही घण्टा काम किया है और आपने उन्हें हमारे बराबर ला दिया, जबकि हमने दिन की तेज़ धूप में कठोर परिश्रम किया.’

13 “बारी के मालिक ने उन्हें उत्तर दिया, ‘मित्र मैं तुम्हारे साथ कोई अन्याय नहीं कर रहा. क्या हम एक दीनार मज़दूरी पर सहमत न हुए थे? 14 जो कुछ तुम्हारा है उसे स्वीकार कर लो और जाओ. मेरी इच्छा यही है कि अन्त में काम पर आए मज़दूर को उतना ही दूँ जितना तुम्हें. 15 क्या यह न्यायसंगत नहीं कि मैं अपनी सम्पत्ति के साथ वह करूँ जो मैं चाहता हूँ? क्या मेरा उदार होना तुम्हारी आँखों में खटक रहा है?’

16 “इसलिए वे, जो अन्तिम हैं पहिले होंगे तथा जो पहिले हैं, वे अन्तिम.”

दुःखभोग और क्रूस की मृत्यु की तीसरी भविष्यवाणी

(मारक 10:32-34; लूकॉ 18:31-34)

17 जब येशु येरूशालेम नगर जाने पर थे, उन्होंने मात्र अपने बारह शिष्यों को अपने साथ लिया. मार्ग में येशु ने उनसे कहा, 18 “यह समझ लो कि हम येरूशालेम नगर जा रहे हैं, जहाँ मनुष्य के पुत्र को पकड़वाया जाएगा, प्रधान याजकों तथा शास्त्रियों के हाथों में सौंप दिया जाएगा और वे उसे मृत्युदण्ड के योग्य घोषित करेंगे. 19 इसके लिए मनुष्य के पुत्र को अन्यजातियों के हाथों में सौंप दिया जाएगा कि वे उसका ठठ्ठा करें, उसे कोड़े लगवाएं और उसे क्रूस पर चढ़ाएं किन्तु वह तीसरे दिन मरे हुओं में से जीवित किया जाएगा.”

ज़ेबेदियॉस की पत्नी की विनती

20 ज़ेबेदियॉस की पत्नी अपने पुत्रों के साथ येशु के पास आईं तथा येशु के सामने झुक कर उनसे एक विनती करनी चाही.

21 येशु ने उनसे पूछा, “आप क्या चाहती हैं?”

उन्होंने येशु को उत्तर दिया, “यह आज्ञा दे दीजिए कि आपके राज्य में मेरे ये दोनों पुत्र, एक आपके दायें तथा दूसरा आपके बायें बैठे.”

22 येशु ने दोनों भाइयों से उन्मुख हो कहा, “तुम समझ नहीं रहे कि तुम क्या माँग रहे हो! क्या तुममें उस प्याले को पीने की क्षमता है, जिसे मैं पीने पर हूँ?” “हाँ, प्रभु,” उन्होंने उत्तर दिया.

23 इस पर येशु ने उनसे कहा, “सचमुच मेरा प्याला तो तुम पियोगे किन्तु किसी को अपने दायें या बायें बैठाना मेरा अधिकार नहीं है. यह उनके लिए है, जिनके लिए यह मेरे पिता द्वारा तैयार किया गया है.”

अगुवा सेवक बने

(मारक 10:35-45)

24 यह सुन शेष दस शिष्य इन दोनों भाइयों पर क्रोधित हो गए; 25 किन्तु येशु ने उन सभी को अपने पास बुला कर उनसे कहा, “तुम यह तो जानते ही हो कि अन्यजातियों के राजा अपने आधीन रहनेवालों का शोषण करते तथा उनके हाकिम उन पर अपना अधिकार जताते हैं. 26 तुममें ऐसा नहीं है, तुममें जो महान बनने की इच्छा रखता है, वह तुम्हारा सेवक बने 27 तथा तुममें जो कोई श्रेष्ठ होना चाहता है, वह तुम्हारा दास हो. 28 ठीक जैसे मनुष्य का पुत्र यहाँ इसलिए नहीं आया कि अपनी सेवा करवाए परन्तु इसलिए कि सेवा करे और अनेकों की छुडौती के लिए अपना जीवन बलिदान कर दे.”

येरीख़ो नगर में अंधे व्यक्ति

(मारक 10:46-52; लूकॉ 18:35-43)

29 जब वे येरीख़ो नगर से बाहर निकल ही रहे थे, एक बड़ी भीड़ उनके साथ हो ली. 30 वहाँ मार्ग के किनारे दो अंधे व्यक्ति बैठे हुए थे. जब उन्हें यह अहसास हुआ कि येशु वहाँ से जा रहे हैं, वे पुकार-पुकार कर विनती करने लगे, “प्रभु! दाविद की सन्तान! हम पर कृपा कीजिए!”

31 भीड़ ने उन्हें झिड़कते हुए शान्त रहने की आज्ञा दी, किन्तु वे और भी अधिक ऊँचे शब्द में पुकारने लगे, “प्रभु! दाविद की सन्तान! हम पर कृपा कीजिए!”

32 येशु रुक गए, उन्हें पास बुलाया और उनसे प्रश्न किया, “क्या चाहते हो तुम? मैं तुम्हारे लिए क्या करूँ?”

33 उन्होंने उत्तर दिया, “प्रभु! हम चाहते हैं कि हम देखने लगें.”

34 तरस खाकर येशु ने उनकी आँखें छुई. तुरन्त ही वे देखने लगे और वे येशु के पीछे हो लिए.

विजय की खुशी में येरूशालेम-प्रवेश

(मारक 11:1-11; लूकॉ 19:28-44; योहन 12:12-19)

21 जब वे येरूशालेम नगर के पास पहुँचे और ज़ैतून पर्वत पर बैथफ़गे नामक स्थान पर आए, येशु ने दो चेलों को इस आज्ञा के साथ आगे भेजा, “सामने गाँव में जाओ. वहाँ पहुँचते ही तुम्हें एक गधी बन्धी हुई दिखाई देगी. उसके साथ उसका बच्चा भी होगा. उन्हें खोल कर मेरे पास ले आओ. यदि कोई तुमसे इस विषय में प्रश्न करे तो तुम उसे यह उत्तर देना, ‘प्रभु को इनकी ज़रूरत है.’ वह व्यक्ति तुम्हें आज्ञा दे देगा.”

यह घटना भविष्यद्वक्ता द्वारा की गई इस भविष्यवाणी की पूर्ति थी:

सियोन की बेटी को यह सूचना दो:
    तुम्हारे पास तुम्हारा राजा आ रहा है;
वह नम्र है और वह गधे पर बैठा हुआ है—
    हाँ, गधे के बच्चे पर— बोझ ढ़ोने वाले के बच्चे पर.

शिष्यों ने येशु की आज्ञा का पूरी तरह पालन किया और वे गधी और उसके बच्चे को ले आए, उन पर अपने बाहरी कपड़े बिछा दिए और येशु उन कपड़ो पर बैठ गए. भीड़ में से अधिकांश ने मार्ग पर अपने बाहरी कपड़े बिछा दिए. कुछ अन्यों ने पेड़ों की टहनियां काट कर मार्ग पर बिछा दीं. येशु के आगे-आगे जाता हुआ तथा पीछे-पीछे आती हुई भीड़ ये नारे लगा रही थी:[a]

“दाविद की सन्तान की होशान्ना!

“धन्य है, वह जो प्रभु के नाम में आ रहे हैं.

“सबसे ऊँचे स्थान में होशान्ना!”

10 जब येशु ने येरूशालेम नगर में प्रवेश किया, पूरे नगर में हलचल मच गई. उनके आश्चर्य का विषय था: “कौन है यह?”

11 भीड़ उन्हें उत्तर दे रही थी, “यही तो हैं वह भविष्यद्वक्ता—गलील के नाज़रेथ के येशु.”

दूसरी बार येशु द्वारा मन्दिर की शुद्धि

(मारक 11:12-19; लूकॉ 19:45-48)

12 येशु ने मन्दिर में प्रवेश किया और उन सभी को मन्दिर से बाहर निकाल दिया, जो वहाँ लेन देन कर रहे थे. साथ ही येशु ने साहूकारों की चौकियां उलट दीं और कबूतर बेचने वालों के आसनों को पलट दिया. 13 येशु ने उन्हें फटकारते हुए कहा, “पवित्रशास्त्र का लेख है: मेरा मन्दिर प्रार्थना का घर कहलाएगा किन्तु तुम इसे डाकुओं की खोह बना रहे हो.”

14 मन्दिर में ही, येशु के पास अंधे और लँगड़े आए और येशु ने उन्हें स्वस्थ किया. 15 जब प्रधान याजको तथा शास्त्रियों ने देखा कि येशु ने अद्भुत काम किए हैं और बच्चे मन्दिर में “दाविद की सन्तान की होशान्ना”[b] के नारे लगा रहे हैं, तो वे अत्यन्त गुस्सा हुए.

16 और येशु से बोले, “तुम सुन रहे हो न, ये बच्चे क्या नारे लगा रहे हैं?” “हाँ”.

येशु ने उन्हें उत्तर दिया,

“क्या आपने पवित्रशास्त्र में कभी नहीं पढ़ा,
    बालकों और दूध पीते शिशुओं के मुख से
आपने अपने लिए अपार स्तुति का प्रबन्ध किया है?”

17 येशु उन्हें छोड़ कर नगर के बाहर चले गए तथा आराम के लिए बैथनियाह नामक गाँव में ठहर गए.

फलहीन अंजीर के पेड़ का मुरझाना

18 भोर को जब वह नगर में लौट कर आ रहे थे, उन्हें भूख लगी. 19 मार्ग के किनारे एक अंजीर का पेड़ देख कर वह उसके पास गए किन्तु उन्हें उसमें पत्तियों के अलावा कुछ नहीं मिला. इस पर येशु ने उस पेड़ को शाप दिया, “अब से तुझ में कभी कोई फल नहीं लगेगा.” तुरन्त ही वह पेड़ मुरझा गया.

20 यह देख शिष्य हैरान रह गए. उन्होंने प्रश्न किया, “अंजीर का यह पेड़ तुरन्त ही कैसे मुरझा गया?”

21 येशु ने उन्हें उत्तर दिया, “तुम इस सच्चाई को समझ लो: यदि तुम्हें विश्वास हो—सन्देह तनिक भी न हो—तो तुम न केवल वह करोगे, जो इस अंजीर के पेड़ के साथ किया गया परन्तु तुम यदि इस पर्वत को भी आज्ञा दोगे, ‘उखड़ जा और समुद्र में जा गिर!’ तो यह भी हो जाएगा. 22 प्रार्थना में विश्वास से तुम जो भी विनती करोगे, तुम उसे प्राप्त करोगे.”

येशु के अधिकार को चुनौती

(मारक 11:27-33; लूकॉ 20:1-8)

23 येशु ने मन्दिर में प्रवेश किया और जब वह वहाँ शिक्षा दे ही रहे थे, प्रधान याजक और पुरनिए उनके पास आए और उनसे पूछा, “किस अधिकार से तुम ये सब कर रहे हो? कौन है वह, जिसने तुम्हें इसका अधिकार दिया है?”

24 येशु ने इसके उत्तर में कहा, “मैं भी आप से एक प्रश्न करूँगा. यदि आप मुझे उसका उत्तर देंगे तो मैं भी आपके इस प्रश्न का उत्तर दूँगा कि मैं किस अधिकार से यह सब करता हूँ: 25 योहन का बपतिस्मा किसकी ओर से था—स्वर्ग की ओर से या मनुष्यों की ओर से?”

इस पर वे आपस में विचार-विमर्श करने लगे, “यदि हम कहते हैं, ‘स्वर्ग की ओर से’, तो वह हम से कहेगा, ‘तब आपने योहन में विश्वास क्यों नहीं किया?’ 26 किन्तु यदि हम कहते हैं, ‘मनुष्यों की ओर से’, तब हमें भीड़ से भय है; क्योंकि सभी योहन को भविष्यद्वक्ता मानते हैं.”

27 उन्होंने आ कर येशु से कहा, “आपके प्रश्न का उत्तर हमें मालूम नहीं.”

येशु ने भी उन्हें उत्तर दिया, “मैं भी आपको नहीं बताऊँगा कि मैं किस अधिकार से ये सब करता हूँ.

दो पुत्रों का दृष्टान्त

28 “इस विषय में क्या विचार है आपका? एक व्यक्ति के दो पुत्र थे. उसने बड़े पुत्र से कहा, ‘हे पुत्र, आज जा कर दाख की बारी का काम देख लेना.’

29 “उसने पिता को उत्तर दिया, ‘मेरे लिए यह सम्भव नहीं होगा.’ परन्तु कुछ समय के बाद उसे अपने उत्तर पर पछतावा हुआ और वह दाख की बारी चला गया.

30 “पिता दूसरे पुत्र के पास गया और उससे भी यही कहा. उसने उत्तर दिया, ‘जी हाँ, अवश्य.’ किन्तु वह गया नहीं.

31 “यह बताइए कि किस पुत्र ने अपने पिता की इच्छा पूरी की?”

उन्होंने उत्तर दिया.

“बड़े पुत्र ने.” येशु ने उनसे कहा, “सच यह है कि समाज से निकाले लोग तथा वेश्याएँ आप लोगों से पहले परमेश्वर के राज्य में प्रवेश कर जाएँगे. 32 बपतिस्मा देने वाले योहन आपको धर्म का मार्ग दिखाते हुए आए किन्तु आप लोगों ने उनका विश्वास ही न किया किन्तु समाज के बहिष्कृतों और वेश्याओं ने उनका विश्वास किया. यह सब देखने पर भी आपने उनमें विश्वास के लिए पश्चाताप न किया.

बुरे किसानों का दृष्टान्त

(मारक 12:1-12; लूकॉ 20:9-19)

33 “एक और दृष्टान्त सुनिए: एक गृहस्वामी था, जिसने एक दाख की बारी लगायी, चारदीवारी खड़ी की, रसकुण्ड बनाया तथा मचान भी. इसके बाद वह दाख की बारी किसानों को पट्टे पर दे कर यात्रा पर चला गया. 34 जब उपज तैयार होने का समय आया तब उसने किसानों के पास अपने दास भेजे कि वे उनसे उपज का पहले से तय किया हुआ भाग इकट्ठा करें.

35 “किसानों ने उसके दासों को पकड़ा, उनमें से एक की पिटाई की, एक की हत्या तथा एक का पथराव. 36 अब गृहस्वामी ने पहले से अधिक संख्या में दास भेजे. इन दासों के साथ भी किसानों ने वही सब किया. 37 इस पर यह सोच कर कि वे मेरे पुत्र का तो सम्मान करेंगे, उस गृहस्वामी ने अपने पुत्र को किसानों के पास भेजा.

38 “किन्तु जब किसानों ने पुत्र को देखा तो आपस में विचार किया, ‘सुनो! यह तो वारिस है, चलो, इसकी हत्या कर दें और पूरी सम्पत्ति हड़प लें.’ 39 इसलिए उन्होंने पुत्र को पकड़ा, उसे बारी के बाहर ले गए और उसकी हत्या कर दी.

40 “इसलिए यह बताइए, जब दाख की बारी का स्वामी वहाँ आएगा, इन किसानों का क्या करेगा?”

41 उन्होंने उत्तर दिया, “वह उन दुष्टों का सर्वनाश कर देगा तथा दाख की बारी ऐसे किसानों को पट्टे पर दे देगा, जो उसे सही समय पर उपज का भाग देंगे.”

42 येशु ने उनसे कहा, “क्या आपने पवित्रशास्त्र में कभी नहीं पढ़ा:

“जिस पत्थर को राजमिस्त्रियों ने अनुपयोगी घोषित कर दिया
    था वही कोने का मुख्य पत्थर बन गया.
यह प्रभु की ओर से हुआ और यह हमारी दृष्टि में अनूठा है?

43 “इसलिए मैं आप सब पर यह सत्य प्रकाशित कर रहा हूँ: परमेश्वर का राज्य आप से छीन लिया जाएगा तथा उस राष्ट्र को सौंप दिया जाएगा, जो उपयुक्त फल लाएगा. 44 वह, जो इस पत्थर पर गिरेगा, टुकड़े-टुकड़े हो जाएगा किन्तु जिस किसी पर यह पत्थर गिरेगा उसे कुचल कर चूर्ण बना देगा.”

45 प्रधान याजक और फ़रीसी यह दृष्टान्त सुन कर समझ गए कि येशु यह उन्हीं के विषय में कह रहे थे 46 इसलिए उन्होंने येशु को पकड़ने की कोशिश तो की किन्तु उन्हें लोगों का भय था क्योंकि लोग येशु को भविष्यद्वक्ता मानते थे.

Footnotes

  1. 21:9 इब्री भाषा के इस शब्द का आशय होता है “बचाइए!” जो यहाँ स्तवन की अभिव्यक्ति के रूप में प्रयुक्त किया गया है.
  2. 21:15 इब्री भाषा के इस शब्द का आशय होता है “बचाइए!” जो यहाँ स्तवन की अभिव्यक्ति के रूप में प्रयुक्त किया गया है.